हाय-हाय कैसी आज़ादी! लूटतंत्र की परिचायक
वंचित गण का तंत्र खोखला, वंचक जन-गण अधिनायकआज़ादी के बाद वतन की मिटी सनातन नैतिकता
जिसने अनुशासन लाना था, सबसे उच्छृंखल दिखता
जो सेनानी मिटे वतन पर डरे नहीं आघातों से
कतराते हैं उनके वंशज देशप्रेम की बातों से
वतनपरस्ती आज वतन में दूर खड़ी घबराती है
कर्मनिष्ठ और धर्मनिरत की हँसी उड़ाई जाती है
कौन मान ले वेदों वाला आर्यव्रत्त है भारत देश
कौन कहे अब आर्यों का ही हो गया इतना विकृत वेश
पग-पग पावन देवभूमि को जग में लज्जित करे हुए
मन में मैल, रगों में सबकी काले शोणित भरे हुए
मुक्त भोग में अपनी संस्कृति को बाधक पाते हैं
पश्चिम का निर्लज्ज आचरण इसीलिए अपनाते हैं
जग के चिर विज्ञानी हम थे, हम ज्ञानी सिरमौर हुए
संस्कृति-संक्रमण हुआ तो हम ही कपटी घोर हुए
कर-चोरी में दक्ष बड़े छल-बल से माल कमाते हैं
गर्भ-धारिणी माताओं को अनुचित अन्न खिलते हैं
पापकर्म से जुड़ा अन्न माँ में जो खून बनाता है
वही खून तो मूक भ्रूण में अपसंस्कृति जगाता है
परम ज्ञान के चरम शिखर थे, जिनका तेज अनूठा था
जिनके अँगना भगवन खेले, सृष्टि का सुख लूटा था
उनके कुल का बीज-द्रव्य अब कलुषित भ्रूण बनाता है
शापित-विकृत भ्रूण देश का पेट फुलाता जाता है
अंध लालसा ने जन जकड़े बढ़ी मनों में कंगाली
हाथ मिलाके गला काटते, कहाँ रुकेगी बदहाली?
अम्ल सींचते हों माली तो डरे बाग का हर कोना
पेट में पल-पल डरें बेटियाँ जिन्हें अभी पैदा होना
साँप छुपे हैं घर के भीतर जिनके दंश डराते हैं
बँटे पड़े हैं खेमों में सब अपनी खाल बचाते हैं
देश के द्रोही मंत्री करते अफज़ल का उद्धार यहाँ
आतंकी मदनी के रक्षक सरकारी गद्दार यहाँ
लूटतंत्र के निर्मम नेता नव छल-बल में कुशल बड़े
सत्यनिष्ठ की हर हलचल को मकड़जाल में जकड़ खड़े
इधर देश में साजिश रचती सरकारों के नाटक हैं
कृषकों के उत्पाद तुच्छ हैं, महँगे डॉलर-हाटक हैं
उधर हिंद की बर्बादी का जाल बिछाए बैठे हैं
जिनको हम ननकाना और कैलाश लुटाए बैठे हैं
देशद्रोह में निरत निरन्तर वाचालों का राज यहाँ
सत्ता के भूखे कुत्तों ने काटा सकल समाज यहाँ
जाति-जाति के छद्म हितैषी घृणा पिलाकर छका रहे
देश को आग लगाकर नेता अपनी खिचड़ी पका रहे
संस्कृति का सत्व मिटाते सेकुलर मिलजुल जाल बुनें
आयातित संविधान समूचा किसको त्यागें, किसे चुनें
हिन्दी-हिन्दू-हिंद विरोधी जो अभियान सँभाले हैं
वामाचारी कुटिलमति सब इसी भूमि ने पाले हैं
जनपथ की दूती को सौंपें गर्वीले भारत की लाज
नकली गाँधी के दुमछल्ले, वर्ण संकरों के मोहताज़
हे भारत के वीरपुत्र! हे कर्णधार! यह सच ले जान
नित्य धूल में मिलती तेरी आर्य-संस्कृति की आन
बनकर आहुतियाँ मिट जाओ जलती अगन कराला में
जलते रहते जो-जो बन्धु देश-प्रेम की ज्वाला में
उठो कि बढ़कर दिशा-दिशा में पहुँचा दें अपना हुँकार
उठो कि वेदों की धरती पर गूँजे फिर से मन्त्रोच्चार
संस्कृति के अधोपतन को अब ना और सहेंगे हम
पग-पग पावन धर्म-धरा को जगद्गुरु कर देंगे हम
जग के चिर विज्ञानी हम थे, हम ज्ञानी सिरमौर हुए
संस्कृति-संक्रमण हुआ तो हम ही कपटी घोर हुए
कर-चोरी में दक्ष बड़े छल-बल से माल कमाते हैं
गर्भ-धारिणी माताओं को अनुचित अन्न खिलते हैं
पापकर्म से जुड़ा अन्न माँ में जो खून बनाता है
वही खून तो मूक भ्रूण में अपसंस्कृति जगाता है
परम ज्ञान के चरम शिखर थे, जिनका तेज अनूठा था
जिनके अँगना भगवन खेले, सृष्टि का सुख लूटा था
उनके कुल का बीज-द्रव्य अब कलुषित भ्रूण बनाता है
शापित-विकृत भ्रूण देश का पेट फुलाता जाता है
अंध लालसा ने जन जकड़े बढ़ी मनों में कंगाली
हाथ मिलाके गला काटते, कहाँ रुकेगी बदहाली?
अम्ल सींचते हों माली तो डरे बाग का हर कोना
पेट में पल-पल डरें बेटियाँ जिन्हें अभी पैदा होना
साँप छुपे हैं घर के भीतर जिनके दंश डराते हैं
बँटे पड़े हैं खेमों में सब अपनी खाल बचाते हैं
देश के द्रोही मंत्री करते अफज़ल का उद्धार यहाँ
आतंकी मदनी के रक्षक सरकारी गद्दार यहाँ
लूटतंत्र के निर्मम नेता नव छल-बल में कुशल बड़े
सत्यनिष्ठ की हर हलचल को मकड़जाल में जकड़ खड़े
इधर देश में साजिश रचती सरकारों के नाटक हैं
कृषकों के उत्पाद तुच्छ हैं, महँगे डॉलर-हाटक हैं
उधर हिंद की बर्बादी का जाल बिछाए बैठे हैं
जिनको हम ननकाना और कैलाश लुटाए बैठे हैं
देशद्रोह में निरत निरन्तर वाचालों का राज यहाँ
सत्ता के भूखे कुत्तों ने काटा सकल समाज यहाँ
जाति-जाति के छद्म हितैषी घृणा पिलाकर छका रहे
देश को आग लगाकर नेता अपनी खिचड़ी पका रहे
संस्कृति का सत्व मिटाते सेकुलर मिलजुल जाल बुनें
आयातित संविधान समूचा किसको त्यागें, किसे चुनें
हिन्दी-हिन्दू-हिंद विरोधी जो अभियान सँभाले हैं
वामाचारी कुटिलमति सब इसी भूमि ने पाले हैं
जनपथ की दूती को सौंपें गर्वीले भारत की लाज
नकली गाँधी के दुमछल्ले, वर्ण संकरों के मोहताज़
हे भारत के वीरपुत्र! हे कर्णधार! यह सच ले जान
नित्य धूल में मिलती तेरी आर्य-संस्कृति की आन
बनकर आहुतियाँ मिट जाओ जलती अगन कराला में
जलते रहते जो-जो बन्धु देश-प्रेम की ज्वाला में
उठो कि बढ़कर दिशा-दिशा में पहुँचा दें अपना हुँकार
उठो कि वेदों की धरती पर गूँजे फिर से मन्त्रोच्चार
संस्कृति के अधोपतन को अब ना और सहेंगे हम
पग-पग पावन धर्म-धरा को जगद्गुरु कर देंगे हम